अब दशरथनन्दन श्रीराम भाईयों सहित पैदल चलने लगे, फिर वे एक ही जगह कैसे रह सकते थे। जिधर मन आए उधर ही राजमहल के द्वार तक दौड़ लगाने लगे। एक बार उमापति भगवान शंकर मदारी के वेष में डमरु बजाते हुए अवध के राजमहल के द्वार पर पहुंचे। उनके साथ नाचने वाला एक सुन्दर बंदर भी था। मदारी और बंदर का खेल देखने के लिए राजमहल के द्वार पर लोगों की भीड़ जमा हो गई। डमरु की आवाज सुनकर श्रीराम सहित चारों भाई भी महल के द्वार पर आ गए। तभी मदारी ने जोर से डमरु बजाया और बंदर ने श्रीराम को देखकर दोनों हाथ जोड़ लिए। यह देखकर सभी भाईयों सहित श्रीराम हंसने लगे। मदारी जैसे निहाल हो गया। वह और भी जोर से डमरु बजाने लगा। डमरु की आवाज के साथ बंदर भी ठुमुक-ठुमुक कर नाचने लगा।।
नाचने और नचाने वाले दोनों ही भगवान शंकर
भगवान शंकर एक अंश से वानररूप में अपने आराध्य के सामने नाच रहे थे और दूसरे अंश से स्वयं ही मदारी बनकर अपने को नचा रहे थे। सम्पूर्ण सृष्टि को नचाने वाले कौसल्यानन्दन श्रीराम नाच से मुग्ध होकर हाथ से ताली बजाकर प्रसन्न हो रहे थे।अब भगवान ने लीला की। शिशु राम मचल उठे–’मुझे यह वानर चाहिए।’ मदारी तो यह चाहता ही था। अपने आराध्य के चरणों में रहने की अभिलाषा लेकर ही उसने वानररूप धरा था। महाराज दशरथ के पुत्र की कामना अधूरी कैसे रहती? अब उस वानर की डोर कौसल्यानन्दन के हाथ में थी।
नाचें भोले नचावें श्रीराम
अब तक भोलेनाथ बंदर के रूप में अपने को ही नचा रहे थे, परन्तु अब वह स्वयं नाच रहे थे और नचाने वाले थे अवधकिशोर श्रीराम। बंदर के सुख और आनन्द की सीमा न थी। अब मदारी अदृश्य हो गया; शायद अपनी समाधिवस्था में अपने आराध्य का दर्शन करने के लिए कैलासपर्वत चला गया था।हनुमानजी को अपने स्वामी के समीप रहने का अवसर मिल गया। अब वे भगवान श्रीराम को जैसे सुख मिले, उनका मनोरंजन हो, वही करते थे। इस प्रकार कई वर्ष क्षण में ही बीत गए।एक दिन महर्षि विश्वामित्र श्रीराम को वन में ले जाने के लिए आए तब श्रीराम ने हनुमानजी को एकान्त में ले जाकर कहा–‘मेरे अंतरंग सखा हनुमान! मेरे पृथ्वी पर अवतरित होने का प्रमुख कार्य अब शुरु होने वाला है। अब मैं रावण का वध कर पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करुंगा। मुझे इस कार्य में तुम्हारी सहायता चाहिए होगी। अत: तुम ऋष्यमूकपर्वत पर जाकर सुग्रीव से मित्रता कर लो। कुछ ही दिनों में मैं वहां आऊंगा। वहां तुम मुझसे सुग्रीव की मित्रता करवाकर वानर-भालुओं के साथ मेरे अवतार-कार्य में सहायता करना।’हनुमानजी अपने आराध्य से दूर नहीं होना चाहते थे; किन्तु प्रभु की आज्ञा का पालन करने के लिए भरे मन से ऋष्यमूकपर्वत पर चले गए। यही ‘रामकाज’ है और इसी कार्य में सहायक होने के कारण हनुमानजी पूज्य हैं।इस प्रकार भगवान शंकर ने कभी देवरूप से, कभी मनुष्यरूप से और कभी वानररूप हनुमान के रूप में श्रीराम की सेवा की और उपासकों के सामने अपने आराध्य की किस प्रकार सेवा की जाती है, किस प्रकार उन्हें प्राप्त किया जा सकता है–इसका उदाहरण प्रस्तुत किया।