ये बच्चे ज्ञानोदय आवासीय स्कूल के थे (अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग के बच्चों का आवासीय स्कूल) ये बच्चे अपनी मांगों को लेकर 15 किलोमीटर दूर से पैदल आ रहे थे। एक कतार में, अनुशासन के साथ नारे लगाते हुए। साथ में न कोई टीचर ना कोई नेता! पर ऐसे चलते थे जैसे आंदोलनों में उम्र खपाई हो। मुझे जिज्ञासा हुई। कार साइड में खड़ी की। जाकर पूछा तो कहने लगे पिछले 3 सालों से पढ़ाई नहीं हो रही, किताबें नहीं है, हॉस्टल में खाना खराब मिलता है और सबसे बड़ी बात हमारा एक साथी कल रात पहली मंजिल से गिरकर घायल हो गया, स्कूल वालों ने इलाज तक नहीं कराया। हम बच्चे ही उसे अस्पताल ले गए और चंदा कर उसका इलाज करवाया।सातवीं आठवीं क्लास के छोटे-छोटे मासूम बच्चे । फिर ऊपर से गरीब। उम्र से और भी छोटे लगते थे। जिज्ञासा और करुणा के मिले-जुले जज्बातों ने मुझे रोक लिया।बच्चे कलेक्टर कार्यालय के गेट के सामने जमीन पर बैठ गए। तेज धूप, बारिश की उमस और उस पर बच्चे 15 किलोमीटर पैदल चल कर आए थे। सुबह से अन्न का एक दाना नहीं, पानी का एक कतरा नहीं। मगर उनके हौसले भूख प्यास पर भारी थे।वे चाहते थे कलेक्टर साहब बाहर आकर उनसे बात करें। एक एसडीएम महोदय आए। समझाने लगे आप में से कोई पांच बच्चे अंदर चलो और अपना ज्ञापन दो। बच्चों ने आपस में सलाह की। यदि 5 बच्चे गए तो अंदर अफसर दबाव बनाकर बहला फुसला देंगे। उनके अचेतन में राजा के कारिदों द्वारा डराने, बहलाने, छले जाने की सामूहिक स्मृतियां थी। बच्चों ने मना कर दिया। एसडीएम साहब ने देर तक कोशिश की। बच्चे समझ गए साहब थाली के पानी में चांद दिखा रहे हैं। समझौता वार्ता फेल हो गई। हारकर साहब ने उन्हें कलेक्टर कार्यालय के अंदर आने की अनुमति दी। बच्चे पोर्च में बैठ गए। नारे लगते रहे। इस बीच छात्र संघ की राजनीति करने वाले कुछ नेताओं ने बीच में पड़ने की कोशिश की, मगर बच्चे इतने भी बच्चे नहीं थे। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा हमारी लड़ाई हमें लड़ने दीजिए। एसडीम साहब मुस्कुराए- जब इनका कोई नेता ही नहीं तो बात किससे करें, कोई नेता बनने की कोशिश करता है तो वे उससे तुरंत त्यागपत्र लिखवा लेते हैं। मैंने कहा इसमें समस्या क्या है कलेक्टर साहब बाहर क्यों नहीं आ सकते। कहने लगे इस तरह तो सारा प्रोटोकॉल ही खत्म हो जाएगा। मैंने कहा नेताओं के लिए तो होता ही रहता है, आज इन मासूमों के लिए सही। मामला उलझता जा रहा था। प्रदर्शन को ढाई घंटे हो गए थे। साहब लोग हैरान थे। पीएससी की परीक्षा में बच्चों से कैसे डील करें का कोई विषय उन्होंने नहीं पढ़ा था। एक बच्चा बेहोश हो गया। बच्चों के कुम्हलाए चेहरे देखकर कलेजा मुंह को आता था। मैने पास की दुकान से पानी की बोतलें बुलवाईं, केले बुलवाए। बच्चों ने पानी की बोतल ले लीं, केले के लिए मना कर दिया। हम भूखे रहेंगे। एक ने उठकर कहा थोड़ा-थोड़ा पानी पीना रे, एक बोतल में से 3 जने! मजाल है किसी बच्चे ने ज्यादा पानी पिया हो। बस एक दो घूंट पीकर अपने साथी को बोतल दे देते थे।
साहिर ने इन्हीं के लिए तो कहा था – भूख ने हमको जन्म दिया/मेहनत ने हमको पाला है!
मैं सोच रहा था बच्चों ने यह सब कहां से सीखा होगा? क्या किसी टीचर ने इन्हे लोकतंत्र का ककहरा सिखाया होगा या किसी किताब में उन्होंने गांधी का पाठ पढ़ा? तीन घंटे बीत गए थे। मुझे न ऑफिस याद आया ना अपने काम। मैं सब भूलकर बच्चों की लीलाएं देख रहा था, जैसे कोई सूरदास कृष्ण की लीलाओं पर निहाल हो रहा हो। मैने बच्चों के लिए अपने भीतर ढेर सारी ममता महसूस की। जी चाहा एक एक बच्चे को गले लगाऊं। कुछ को लगाया भी!आखिरकार कलेक्टर साहब बाहर आए। बच्चों से प्यार से मिले। अफसर की तरह नहीं एक पिता और दादा की तरह। बच्चे भाव समझते हैं। तुरंत मान गए। प्रदर्शन समाप्त हुआ। मैंने कहा अब तो केले खा लो, तो ले लिए।कलेक्टर साहब ने उन्हें बसों में स्कूल छुड़वा दिया।अखबार में बाद में पढ़ा शाम को वे स्कूल भी गए थे। उम्मीद है, बच्चों की सारी समस्याएं हल हो गई होंगी। पर मेरी उम्मीद इससे भी बढ़कर है। बच्चों ने विरोध का पाठ पढ़ लिया है। गांधी किताब के पन्ने से निकलकर उनके विचार में आ गए हैं। एक दिन ये बच्चे केमिस्ट्री के फार्मूले भूल जाएंगे, गणित के समीकरण भूल जाएंगे पर यह दिन उनकी स्मृतियों में हमेशा रहेगा। जब भी कोई उनका हक मारेगा तो इस दिन की याद उन्हे हौसला देगी, लड़ने की ताकत देगी। यह देश जो सड़कों पर उतरना भूल चुका है, जिसके लिए विरोध का मतलब एक व्हाट्सएप संदेश से ज्यादा नहीं है, वहां ये बच्चे इस देश की उम्मीद हैं। इन बच्चों के पैरों के छाले लोकतंत्र की बिंदी है, सौंदर्य हैं । इन्हीं बच्चों में से कल कोई गांधी अंबेडकर और लोहिया पैदा होगा।