अभिनेता संजय मिश्रा (Sanjay Mishra) हिंदी सिनेमा के उन चुनिंदा कलाकारों में से हैं, जो अपनी बेहतरीन अदाकारी से हर किरदार को खास बना देते हैं. अपनी हालिया रिलीज फिल्म ‘वध’ को लेकर वह सुर्खियों में हैं. कॉमेडी और सीरियस फिल्मों के बीच वे आगे भी ऐसा संतुलन बिठाना चाहते हैं. उनकी फिल्म व करियर पर उनसे हुई खास बातचीत के प्रमुख अंश.
यह फिल्म दर्शकों के लिए भी अलग होगी. लोगों को लगेगा कि संजय मिश्रा हैं, तो कुछ हंसी-मजाक तो होगा ही. फिल्म देखकर अगर उनके मुंह से निकला कि ‘ये क्या कर दिया यार, यहां भी कमाल कर गया’, तो वहां मैं सफल हो जाऊंगा. वैसे चैलेंज मेरा नहीं, राइटर-डायरेक्टर का है कि उन्होंने इस किरदार में मुझे कास्ट किया. ‘फंस गए रे ओबामा’ की जब कहानी सुनी, तो मैंने कहा कि मुझे क्यों, नसीर भाई को कास्ट करो. मैं तो इस टाइप का एक्टर भी नहीं हूं. ‘डोंधु जस्ट चिल’ टाइप करता हूं, पर उन्होंने मुझे ही कास्ट किया. एक्टर के तौर पर चैलेंज लेते रहना चाहिए.
इस फिल्म की शूटिंग का अनुभव कैसा रहा?
इस फिल्म की शूटिंग के दौरान गर्मी बहुत थी. लोकेशन पर पहुंचना मुश्किल का काम था. तंग गलियों से जाना और उस घर की खड़ी सीढ़ियों पर चढ़ना टफ तो था ही, जो कहानी थी, वह भी बहुत टफ थी. फिल्म का विलेन जब भी सेट पर होता, मैं तो कांपता रहता था, ‘अरे बाप रे ये कहां से आ गया?’ आज इसका भी शूट है. उसको मैं सीधी नजर से देख नहीं पाता था. मैं एक महीने तक बहुत डिप्रेश था. मैं बताना चाहूंगा कि फिल्म में मेरे किरदार का नाम शंभूनाथ मिश्रा है, जो मेरे पिताजी का नाम है. इस फिल्म की पूरी स्टारकास्ट कमाल की है.
क्या इससे पहले के भी आपके किरदारों ने आपको मानसिक और शारीरिक तौर पर परेशान किया है?
जी हां, ‘आंखों देखी’ फिल्म के वक्त मेरा शुगर लेवल बढ़ गया था. उस दौरान ही पहली बार जाना था कि बॉडी में भी शुगर होता है. डॉक्टर से पूछा- ‘क्यों बढ़ गया’, तो उन्होंने कहा कि ‘आप चिंता में हैं इसलिए’. वह फिल्म ही ऐसी थी कि चिंता हो ही जाती थी. फिल्म ‘कड़वी हवा’ करते वक्त मुझे स्किन इंफेक्शन हो गया था. 45 डिग्री के तापमान में हमें शूट करना होता था. एक्टर को ये सब झेलना ही पड़ता है, वरना दर्शक कैसे उसे महसूस करेंगे.
किरदारों द्वारा आये तनाव से आप कैसे उबरते हैं?
मेरे बच्चे स्क्रू ड्राइवर की तरह हैं, जो इधर-उधर से खोलकर ठीक कर देते हैं. इसके अलावा म्यूजिक खूब सुनता हूं. अच्छा खाना बनाता हूं. रिकॉर्ड कलेक्ट करता रहता हूं. रिकॉर्ड सुनता हूं. मम्मी के पास रहने चला जाता हूं, तो ठीक हो जाता हूं
मम्मी से किस तरह की बातें अब होती हैं, आपकी सफलता को वो किस तरह से लेती हैं?
ड्रामा स्कूल के दिनों से ही उनका लेक्चर चालू है, जो अभी भी चालू रहता है. ‘क्या हाल बना लिया है बेटा’ टाइप. अभी हाल ही में मैं एक दिन के लिए दिल्ली में था. मैंने माताजी को कहा कि होटल में आ जाइए. वो आ गयीं. मैं पांच बजे तक जगा हुआ था, शूटिंग के लिए फ्लाइट पकड़नी थी. दोपहर में सोया ही था कि उसमें भी वह शुरू हो गयीं कि ‘सुनो तुम ये कर लो, वो कर लो. अरे नाश्ता ठीक से किया करो. दवाई टाइम पर खाओ.’ मेरा जवाब होता है कि ‘रात भर जागकर शूट करने के बाद सुबह उठने में देर हो ही जाती है, तो समझ नहीं आता कि सुबह नाश्ते की दवा खाएं या लंच वाली’. वे बोलती हैं कि ‘तुमको ही समझना होगा ना और जो तुम गाड़ी से इधर-उधर ट्रैवल करते रहते हो, वो भी कम कर दो. एक्सीडेंट आजकल बहुत हो रहे हैं.’ और तो और पिछले कुछ समय से वे मेरे बालों को रंगने के पीछे पड़ी रहती हैं, ‘सब बाल काले करके घूम रहे हैं, तुमको ही न जाने क्यों सफेद रखना है (हंसते हुए )’, क्योंकि किसी ने उन्हें मुझे उनका बड़ा भाई बोल दिया था.
पत्नी और बच्चों को भी ये शिकायत रहती है?
उनको आदत पड़ गयी है. अगर मैं घर में बाल काले करके घुस जाऊं, तो बच्चे गिर जायेंगे पड़ाक करके. अभी दो दिन तक लंबी दाढ़ी थी. एक शूटिंग के लिए शूट पर ही कटवाया, जब घर पहुंचा, तो बच्चों के मुंह से तुरंत निकला- ‘अरे पापा ये क्या’. आज फिर शेव कर रहा था. क्रीम लगाकर जैसे शेव करने लगा, तो बच्चे कहने लगे कि ‘आपका शेविंग क्रीम तो तीन साल तक चल जाता होगा, क्योंकि साल में एक बार ही जरूरत पड़ती है.’ मेरी पत्नी तो शिकायत करती है कि ‘तुम कपड़े भरे जा रहे हो. जो हैं पहले उसको इस्तेमाल करो. 27 किलो कपड़े आपके पास हैं, पहले 20 किलो किसी को दे चुकी हूं.’ सोचिए वह मेरे कपड़ों को किलो के हिसाब से नापती है. उसको समझाना पड़ता है कि ‘भाई एक्टर हैं, एक ही कपड़े पहनकर हर जगह नहीं जा सकते हैं.’
किरदार को आत्मसात करने का आपका क्या तरीका है?
मैं उस तरह का एक्टर नहीं हूं, जो कमरे में अकेले बैठकर डायलॉग याद करे. दो लोगों के डायलॉग हैं, तो दो लोग ही बात करते-करते कर लेते हैं, उससे क्या है कि मामला रीयल भी दिखता है. मानो बात कर रहे हैं, डायलॉग नहीं बोल रहे हैं. मॉनिटर सिर्फ कलर देखने के लिए एक बार देखता हूं.
नीना जी मुझे सीनियर ही समझती थीं, जो कि मैं था नहीं. वो भी नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से हैं, सीनियर समझकर कभी वो मुझे सम्मान दें, कभी मैं. सम्मान-सम्मान में ये पूरी फिल्म हो गयी. मुंबई वापस आकर उनको मालूम पड़ा कि मैं जूनियर हूं, तो तुरंत आप से वह तू पर आ गयीं. वैसे अच्छे एक्टर्स होते हैं, तो आपका सीन बनता है. अकेले आपको देखने कोई नहीं आता है.
‘वध’ कहीं ना कहीं इंसान के गुस्से को दर्शाता है. आपको किन बातों पर गुस्सा आता है?
सच कहूं तो मुझे गुस्सा आता ही नहीं है. आता भी है, तो छोटी -छोटी बातों पर. अरे यार ड्राइवर खाने के डिब्बे के साथ चम्मच नहीं लाया… बस मेरा गुस्सा इतना बोलकर शांत. मुझे लगता है कि गुस्सा करने को बहुत सारी चीजें हैं, अगर सब पर होते रहे तो बस गुस्से में ही रहेंगे, इसलिए मैं हमेशा कहता हूं कि हम हिंदुस्तानी एक-दूसरे को देखें, तो जरूर मुस्कुराएं.
इस साल ‘भूलभुलैया 2’ के बाद ‘वध’ फिर रोहित शेट्टी निर्देशित फिल्म सर्कस?
ये मैं नहीं असल में मेरे निर्देशक बैलेंस कर रहे हैं. ये एक कलाकार के लिए बड़ी अच्छी बात होती है कि दोनों तरह के किरदार करने को मिल रहे हैं. एक बैट्समैन के लिए अच्छा होता है कि वह टी-ट्वेंटी भी अच्छा खेलता है और टेस्ट मैच भी. तो मैं वो बैट्समैन हूं, जिसके टी-ट्वेंटी और टेस्ट मैच एक ही महीने में आते हैं. टेंशन होती तो है भाई, कहानी आपको ही ढोकर ले जाना होता है, तो प्रेशर भी होता है. ‘सर्कस’ (रिलीज 23 दिसंबर, 2022) जैसी फिल्मों में जिम्मेदारी बंट जाती है.
थिएटर में दर्शक फिल्म देखने जायें, इसके लिए क्या जरूरी कदम उठाये जाने की जरूरत है?
थिएटर जाने का दौर लौटना चाहिए. सरकार को मदद करनी चाहिए. 200 करोड़ की फिल्म और तीन-तीन करोड़ की फिल्म, दोनों को एक ही टैक्स मत मारो. रिक्शावाला, प्लम्बर कैसे अपने परिवार को लेकर थिएटर में जायेगा. टिकटों के दाम वह कैसे अफोर्ड कर पायेगा. आप नेशनल अवार्ड जिस फिल्म को देते हैं, क्यों नहीं उसे टैक्स फ्री करके हर शहर में दिखाते हैं. भारत में सिनेमा व कला की हमेशा अनदेखी हुई है, जबकि उसको बढ़ावा देना जरूरी है, तभी तो लोग संस्कृति को समझेंगे. कमाल के दर्शक हमारे पास हैं, उनमें कुछ अच्छा भरने की जरूरत है.