लगभग यही आलम आज हमारे समाज का है। जब भी कोई व्यक्ति हमारे इस समाज को अन्धविवास, पाखण्ड, कुरीति, षड्यंत्र आदि के प्रपन्च से मुक्त होकर अपने महापुरुषों आदि को जानने और उनके द्वारा कही गयी बातों को मानने की बात करता है तो वे पलटकर उसे ही बुरा भला कहते हैं क्योंकि हमारा समाज इस पाखण्ड के मकड़जाल में बुरी तरह जकड़ चुका है और उन्होंने इस गुलामी को पूर्ण रूपेण आत्मसात कर लिया है, जिसे वह हजारों वर्षों से ढोता चला आ रहा हैं।अश्वेतों को तो केवल शारीरिक गुलामी मिली हुई थी जिन्होंने उसके छुटकारे पर लिंकन को बुरी तरह कोसा था, परन्तु हमारे समाज को तो धार्मिक चमत्कार, पाखण्ड, अन्धविश्वास, ज्योतिष, पाप, पुण्य इत्यादि के जाल में फंसाकर मानसिक गुलाम बनाया हुआ है ऊपर से राजनीतिक संरक्षण से उस पाखण्ड को और मजबूत किया जाता रहा है और अब वह इसी का आदी होने के कारण अपनी अज्ञानतावश इसी के रसास्वादन में लगा हुआ है।शारीरिक गुलामी की बेड़ियों को गहना तथा मानसिक गुलामी की बेड़ियों को धर्म, जन्म, कर्म आदि समझ कर गुलाम अपनी गुलामी पर गर्व करता है, जागरूकता के अभाव के कारण समझाने पर कुतर्क करता है, इसलिए गुलामों को जब तक गुलामी का एहसास नही करा दिया जाता तब तक वह अपनी बेड़ियां को तोड़ने को तैयार नहीं होंगा। उसे यह जागरूकता विवेक के विपरीत विद्रोह लगती है।लेकिन यह याद रखें जिस दिन इस देश के लोगों को अपनी मानसिक गुलामी का एहसास हो जाएगा उस दिन वह अपनी शारीरिक एवम् मानसिक गुलामी की बेड़ियों को अवश्य उतार फेंकेगा और तब उसके उत्थान को कोई रोक नहीं सकेगा मगर ऐसा न शोषित वर्ग जानने व समझने को तैयार है और न शोषक उन्हें खाँचे से खिसकने देने को तैयार है।इसलिए भारत में एक कारण यह भी है कि अबतक यहां सद्भाव स्थापित नहीं हो सका। अंधविश्वास यहां की दिनचर्या तथा भ्रष्टाचार यहां की संस्कृति का रूप ले चुका है। उसमें भी मानसिक भ्रष्टाचार अधिक हावी है इसलिए लोगों को यह बेड़ियों से अधिक गहना अथवा विकृति से अधिक संस्कृति लगती है जिस कारण कोई विमर्श या कोई निष्कर्ष भी हंगामा बरपा सकते हैं।