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1947 में देश स्वतन्त्र होने के बाद 15 अपै्रल, 1948 को हिमाचल प्रदेश का एक केन्द्र शासित प्रदेश के रूप में गठन हुआ। तब इसे एक दूरदर्शी तथा राजनीतिक सूझबूझ वाले नेता व कुशल प्रशासक की आवश्यकता थी। स्वतन्त्रता सेनानी वैद्य सूरत सिंह ने डा. यशवन्त सिंह परमार की योग्यता को पहचान कर पच्छाद क्षेत्र से उन्हें विधानसभा का चुनाव लड़ाया। यद्यपि जनता की इच्छा थी कि वैद्य जी स्वयं चुनाव लड़ें। चुनाव जीतने के बाद डा0 परमार हिमाचल के प्रथम मुख्यमन्त्री बने।

डा. परमार का जन्म चार अगस्त, 1906 को सिरमौर रियासत के ग्राम चन्हालग में हुआ था। उन्होंने एम.ए, एल.एल.बी. तथा लखनऊ विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर सिरमौर रियासत में जिला एवं सत्र न्यायाधीश तथा फिर दिल्ली में अनेक महत्वपूर्ण शासकीय पदों पर काम किया।पहाड़ों में सड़क, बिजली, शिक्षा, व्यापार, उद्योग आदि का अभाव ही रहता है। छोटे-छोटे खेत होने के कारण खेती भी कुछ खास नहीं होती। लोग प्रायः सेना में या मैदानी भागों में ही नौकरी करते हैं। वे हर महीने अपने घर धनादेश (मनीआर्डर) से पैसा भेजते हैं, तब परिवार के बाकी लोगों का काम चलता है।इन समस्याओं के बीच डा. परमार ने प्रदेश की शिक्षा, कृषि, बागवानी, यातायात, स्वास्थ्य आदि के क्षेत्र में सुदृढ़ नींव डाली। इससे वह भी अन्य राज्यों की तरह प्रगति के पथ पर चल पड़ा।डा. यशवन्त सिंह परमार एक दूरदर्शी राजनेता व कुशल प्रशासक तो थे ही; मनसा, वाचा, कर्मणा वे ठेठ पहाड़ी भी थे। पहाड़ी संस्कृति उनके रोम-रोम में बसी थी।नगरीय क्षेत्र में पहाड़ के लोगों का शोषण देखकर उन्होंने स्वयं को सगर्व पहाड़ी घोषित किया। प्रायः लोग पहाड़ी वस्त्र पहनने में शर्म अनुभव करते हैं; पर वे सदा लम्बी कमीज, चूड़ीदार पाजामा और लोइया आदि ही पहनते थे। उन्हें देखकर अन्य लोगों ने इसका अनुसरण किया। इस प्रकार डा. परमार ने पहाड़ी वेशभूषा को गौरव प्रदान किया।डा. परमार अपनी बोलचाल में प्रायः हिमाचली भाषा-बोली का ही प्रयोग करते थे। उनका स्पष्ट मत था कि अपनी बात सब तक पहुँचानी है, तो स्थानीय बोली से अच्छी कोई चीज नहीं है। उन्होंने हिमाचली भाषा को देवनागरी में लिखने को प्रोत्साहन दिया। उनका मत था कि इससे हिन्दी को लाभ ही मिलेगा। पहाड़ी भाषा एवं लोक कलाओं के संरक्षण के लिए उन्होंने हिमाचल कला, संस्कृति व भाषा अकादमी की स्थापना की।मुख्यमन्त्री बनने के बाद भी वे सदा मिट्टी से जुड़े रहे। उनके स्वागत में ग्रामीण लोग जब लोकनृत्य करतेे, तो वे भी उसमें शामिल हो जाते थे। लोकपर्व, मेले व तीज-त्योहारों आदि में वे प्रयासपूर्वक उपस्थित रहते थे। ग्रामीण क्षेत्र में वे असकली, सिड़कु, पटण्डे, लुश्के जैसे स्थानीय पकवानों की माँग करते और ग्रामीण जनों के बीच में बैठकर पत्तल पर ही भोजन करते थे। उन्होंने अपने लिए कोई सम्पत्ति एकत्र नहीं की। उनका पैतृक मकान गाँव में आज भी साधारण अवस्था में ही है।सरलता, सादगी एवं परिश्रम की प्रतिमूर्ति, हिमाचल के निर्माता एवं हिमाचल गौरव जैसे सम्मानों से विभूषित डा. यशवन्त सिंह परमार ने 25 वर्ष तक राज्य की अथक सेवा की। दो मई, 1981 को उनका देहान्त हुआ।

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Author: cnindia

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