समाचार है कि राष्ट्रपति मूर्मु की हालिया झारखंड यात्रा के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने उनसे सरना कोड को केंद्र सरकार से समर्थन दिलाने की विनती की। सरना कोड अर्थात जनगणना में हिन्दू मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन और पारसी धर्म के अलावा सरना धर्म का आप्शन भी शामिल करना। देश की जनजातीयों की मांग है कि ब्रिटिश काल की तरह ही उन्हें जीववादी (animist) या प्रकृतिवादी श्रेणी में शामिल होने का अवसर मिलना चाहिए। देश के वर्तमान शासक दल की संरक्षक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस बात के लिए कटिबद्ध है कि समस्त आदिवासी (जिन्हें संघ वनवासी कहती है) अपने को हिन्दू ही घोषित करें।किसी भी और धर्म से असुरक्षा की भावना संघ की विशिष्ट सोच है। संघ को हर गैर- हिन्दू वर्ग से ख़तरे का आभास होता है। संघ के वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत के अनुसार जो भी भारत में रहता है वो हिन्दू ही है। है ऐसा मानते हैं वहाँ तक तो ठीक है पर उनके मुंह से यह स्वीकारोक्ति सुनने की इतनी तीव्र इच्छा का मनोविज्ञान क्या है यह समझना थोड़ा कठिन है।पुरातत्वविदों में एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि आज जिन्हें हम आदिवासी और द्रविडियन कहते हैं वे ही सिंधु घाटी सभ्यता के चरमकाल में इस भूभाग के निवासी थे। सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के समय ही यूरोप के घास के मैदानों से आए तथाकथित आर्यपुत्रों ने उन्हें पराजित कर विंध्य के दक्षिण में और जंगलों में धकेल दिया था। हड़प्पन काल के अवशेषों में हरियाणा के राखीगढ़ी में मिले एक कंकाल के डी एन ए की समानता उत्तर भारत के बजाय दक्षिण भारतीयों के डी एन ए से पायी गयी है।यह एक विवादित और अनिर्णीत विषय है परन्तु इतना तय है कि तथाकथित वर्तमान सभ्य समाज ने विश्व में कहीं भी मूलनिवासियों के साथ सभ्य व्यवहार नहीं किया है। हर जगह उनको निकृष्ट और असभ्य घोषित किया गया है जबकि सत्य यह है कि कुछ विषयों जैसे पर्यावरण का सरंक्षण में आज की सोच से आगे हैं।सरना कोड को मान्यता मिलने के विषय में आदिवासियों में भी एकता नहीं है क्योंकि इतने विशालकाय देश में रीति-रिवाज और मान्यताओं में अन्तर होना स्वाभाविक है परन्तु देश के विभिन्न प्रांतों में बिखरे हुए लगभग सत्रह करोड़ मूलनिवासियों को असभ्य कहना और जबरन एक प्रचलित धर्म का होने की घोषणा करना मानवाधिकार का उल्लंघन है और सभ्य व्यवहार तो बिल्कुल नहीं है।