यों तो सत्याग्रहियों और क्रान्तिकारियों पर पूरे देश में अत्याचार होते थे; पर हैदराबाद रियासत की बात ही निराली थी। वहाँ का निजाम मुस्लिम लीगी था। उसके गुण्डे सामान्य दिनों में भी हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। कोई मठ, मन्दिर वहाँ सुरक्षित नहीं था।निजाम की इच्छा थी कि देश स्वतन्त्र न हो। यदि हो, तो हैदराबाद रियासत को स्वतन्त्र रहने या पाकिस्तान के साथ जाने की छूट मिले। अंग्रेजों ने भी उसे खुली छूट दे रखी थी। ऐसे में स्थानीय हिन्दुओं ने निजाम के विरुद्ध आन्दोलन किया। आर्य समाज के नेतृत्व में देश भर से सत्याग्रही हैदराबाद आने लगे। उनमें में वीर बालक शान्तिप्रकाश भी था।प्रायः जेलों में गुण्डे और चोर ही होते हैं। जेलर इनसे गाली और मारपीट से ही बात करते हैं; पर हैदराबाद की जेल में अब जो लोग आये, वे सम्पन्न, शिक्षित और प्रतिष्ठित लोग थे। अतः उनसे मारपीट करना बहुत कठिन था। वे किसी सुविधा या न्यायालय में जमानत के लिए भी अनुरोध नहीं करते थे।ऐसे में जेलर ने सोचा कि इनसे क्षमापत्र लिखवा कर इन्हें छोड़ दिया जाये; पर कोई सत्याग्रही इसके लिए तैयार नहीं था। अतः जेलर ने पुराना तरीका अपनाया। बन्दियों को जूतों, डण्डों, लोहे की चेन से पीटा जाता। भरी दोपहर में उनसे भारी पत्थर ढुलवाये जाते। लोहे की पतली तार के सहारे गहरे कुएँ से बड़े डोल से पानी खिंचवाया जाता। इससे हाथ कट जाते थे। दोपहर 12 बजे से चार बजे तक धूप में नंगे सिर और पाँव खड़ा कर दिया जाता। बेहोश होने पर क्षमापत्र पर उनके अंगूठे लगवा लिये जाते। इससे बन्दियों की संख्या घटने लगी और सत्याग्रह की बदनामी होने लगी।
शान्तिप्रकाश का कोमल शरीर यह अत्याचार सहन नहीं कर पाया, उसने चारपाई पकड़ ली। इलाज के अभाव में जब उसकी हालत बिगड़ गयी, तो उसके घर तार से सूचना भेजी गयी। उसके पिता श्री रामरत्न शर्मा दौड़े-दौड़े हैदराबाद आये। पुत्र की हालत देखकर उनकी आँखों में आँसू आ गये।शान्ति ने इस अवस्था में भी उन्हें धैर्य बँधाया और माँ तथा अन्य परिजनों का हाल पूछा। जेलर ने देखा कि यह अच्छा मौका है, उसने शान्ति के पिता से कहा कि यदि आप चाहें, तो आपका बेटा बच सकता है। बस, यह क्षमापत्र भर दे, तो आज ही इसकी रिहाई हो सकती है; पर शान्ति को दृढ़ता के संस्कार पिता से ही तो मिले थे। उन्होंने भी मना कर दिया। शान्ति ने सन्तुष्टि के साथ मुस्कुराते हुए पिता की गोदी में सिर रखा और प्राण त्याग दिये।इस घटना के कुछ वर्ष बाद लोगों ने देखा गुरदासपुर से बटाला जाने वाले मार्ग पर एक साधु ने डेरा लगाया। वह दिन भर पतले लोहे के तार से बड़े डोल में कुएँ से पानी खींचकर आते-जाते लोगों को पिलाता था। प्याऊ के बाहर सूचना लिखी थी कि यहाँ कोई किसी को गाली न दे। लोगों का अनुमान था कि यह वही क्रूर जेलर है, जिसके अत्याचारों से पीड़ित होकर शान्तिप्रकाश का देहान्त हुआ था। उसके बलिदान ने जेलर का मन बदल दिया और वह नौकरी छोड़कर सेवा में लग गया।